अकबर के सेनापति मानसिंह के मन में एक बार श्रीलंका पर चढ़ाई कर , उसे जीतने का भूत सवार हो गया। एक तो राजपूत, दूसरे जवान बहुत प्रकार से लोगों ने उन्हें समझाया, पर सब बेअसर।
युद्ध के लिये प्रयाण-विषयक तैयारियाँ होने लगीं। अन्तमें कुछ वृद्धजनों ने राजकवि को इस दिशा में कुछ प्रयास करने का अनुरोध किया।
कविवर ने समय आने पर कुछ करने का आश्वासन दिया। प्रस्थान हेतु मुहूर्त आने पर कूच करने की तैयारी होने लगी। प्रस्थानका बिगुल बज गया। राजा मानसिंह घोड़े पर सवार होने जा ही रहे थे कि राजकवि सामने आ गये।
उन्होंने तत्काल एक श्लोक पढ़ा-
रघुपति कीन्हो दान, विप्र विभीषन मानि के
मान महीपति मान, दियो दान किमि लीजियो ॥
'हे राजा मानसिंह! मान जाइये। आप यह क्या करने जा रहे हैं ? लंका को तो आपके पूर्वज श्रीराम विप्र विभीषणको दान कर चुके हैं। क्या दी हुई वस्तुको लेने का आपका प्रयास युक्तिसंगत है ?' मानसिंह लजा गये, उनके पैर ठिठक गये। सेना निरर्थक तबाही से बच गयी।
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